-जयराम शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल
दिलचस्प संयोग है कि हिन्दी दिवस हर साल पितरपक्ष में आता है। हम लगे हाथ हिन्दी के पुरखों को याद करके उनकी भी श्राद्ध और तर्पण कर लेते हैं।
सात साल पहले भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन रचा गया था। सरकारी स्तर पर कई दिशा निर्देश निकले, संकल्प व्यक्त किए गए। लगा मध्यप्रदेश देश में हिन्दी का ध्वजवाहक बनेगा, पर ढांक के वही तीन पात।
सरकार हिन्दी को लेकर कितनी निष्ठावान हैं, यह जानना है तो जाकर भोपाल का अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय की दशा देख आइए। विश्वविद्यालय की परिकल्पना यह थी कि विज्ञान, संचार से लेकर चिकित्सा और अभियंत्रिकी तक सभी विषय हिन्दी में पढ़ाएंगे। आज भी विश्वविद्यालय नामचार का है। सर्टिफिकेट परीक्षाएं आयोजित करने के सिवाय कोई काम नहीं। चिकित्सा और अभियंत्रिकी की पढ़ाई शुरू हुई यह हमें नहीं मालूम।
अभी पिछले साल से एक शोर उठा कि मध्यप्रदेश में अंग्रेजी पद्धति की चिकित्सा की पढ़ाई हिन्दी पद्धति से होगी। सुनकर बड़ा अजीब लगा। एलोपैथी ग्रीक लैटिन और अंग्रेजी की कोख से निकली पली-बढ़ी। उसका हिन्दीकरण वैसे ही होगा, जैसे कि रेल को लौहपथगामिनी और कंम्प्यूटर को संगणक बनाना। साइकिल को द्विचक्रवाहिनी और लैट्रिन को शौचालय लिख देना। जो मौलिक है उसे मौलिकता के साथ ही आगे बढ़ाना चाहिए। हिन्दी संस्कृत के गर्भनाल से निकली है। पूरा आयुर्वेद संस्कृत में है। क्या हम ऐलोपैथी के समानांतर या उससे बड़ा आयुर्वेद का संसार नहीं रच सकते… हिन्दी में या अन्य भारतीय भाषाओं में? मेडिकल को हिन्दी में बढ़ाना है तो कम से कम इतना अनिवार्य कर दीजिए कि दवा से लेकर जांच परिणाम तक सबकुछ हिन्दी में लिखा जाए। पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी हिन्दी में लिखा जाना अनिवार्य हो। आजकल डाक्टर पर्चियों में नीचे यह तो हिन्दी में लिख देते हैं कि कानूनी कार्रवाई का दायरा यह होगा लेकिन दवाइयों और जांच के नाम न जाने किस कूट भाषा में लिखते हैं कि उसे मेडिकल स्टोर और पैथलैब वाले के अलावा तीसरा कोई नहीं बांच सकते। हिन्दी के नामपर ढोढकविद्या रचने वाले मंत्री नेता पहले स्वयं सरकारी अस्पतालों में भर्ती हों और इलाज की भाषा हिन्दी तय करें, अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के विद्यालयों में दाखिला दिलवाएं तब हिन्दी का उपदेश बांटें।
हां, नरेन्द मोदी को इस बात के लिए साधुवाद दिया जाना चाहिए कि जबसे उन्होंने प्रधानमंत्री के तौर पर देश की कमान संभाली तबसे वह हिन्दी के लोकव्यापीकरण में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। उन्हें विदेशों में भी हिंदी में सुनकर अच्छा लगता है। जब बहुत ही जरुरी होता है, तभी वह अंग्रेजी में बोलते हैं। सही पूछा जाए तो अहिन्दी क्षेत्रवासियों ने ही हिन्दी का बाना उठाया। बालगंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, रवींद्र नाथ टैगोर, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सुब्रह्मण्यम भारती जैसे मनीषी थे, जिन्होंने हिन्दी की प्राण प्रतिष्ठा में मदद की। यह सभी मानते थे कि हिन्दी ही देश को एक सूत्र में बांध सकती थी, क्योंकि यह संघर्ष भी भाषा है, यह आंदोलन की जुबान है। महात्मा गांधी खुद स्वीकार करते थे कि उनकी हिन्दी कमजोर है फिर भी यह भाषा राष्ट्र की आन, बान, शान है।
संविधान में हिन्दी को जब राजभाषा स्वीकार किया गया तो ये बात कही गई कि निकट भविष्य में देश अंग्रेजी की केंचुल उतार फेंकेगा, लेकिन यह एक झांसेबाजी थी। भारतीय प्रशासनिक एवं समकक्षीय सेवाएं, जिनसे देसी लाटसाहब तैयार होते हैं, वहां हिन्दी के संस्कार नहीं दिए गए। ये देश के नए राजे-महाराजे हैं और हर बाप अपने बेटों का भविष्य इन्हीं की छवि में देखता है, इसलिए सरकारी स्कूलों के समानांतर पब्लिक स्कूलों का कारोबार आजादी के बाद न सिर्फ जारी रहा वरन दिनदूना रात चौगुना बढता रहा। साठ का दशक तक आते-आते यह धारणा पुख्ता हो गई कि अंग्रेजी अफसर पैदा करती है और हिन्दी चपरासी। इन्हीं दिनों जब डाक्टर राममनोहर लोहिया ने हिन्दी का आंदोलन चलाया तो मध्य व पिछड़ा वर्ग इसलिए जुड़ा, क्योंकि उनके बच्चों के लिए भी भविष्य का रास्ता हिन्दी से साफ होगा। समाजवादी नेताओं ने इसका फायदा उठाया। कई राज्यों की सरकारें बदलीं। इधर डा.लोहिया सत्तर का दशक नहीं देख पाए, उधर इनके चेलों ने लोहिया के संकल्पों को विसर्जित करना शुरू कर दिया। चरण सिंह और मुलायम सिंह लोहिया टोपी लगाकर बात तो हिन्दी की बढाने की करते थे पर बेटों को विलायत पढ़ने के लिए भेजते रहे। हिन्दी सरकारी और राजनीतिक दोनों के दोगलेपन का शिकार हो गई और आज भी जारी है। लाटसाहबियत में अंग्रेजी अभी भी है कल भी रहेगी, नेता कुछ भी बोलें उसे फर्जी समझिए।
हिन्दी अब तक न्याय की भी भाषा नहीं बन पाई। उच्चन्यायालयों में नख से शिख तक अंग्रेजी है। मुव्वकिलों को हिन्दी की एक एक चिंदी का अंग्रेजी रूपांतरण करवाना होता है और उसके लिए भी रकम खर्चनी पड़ती है। यहां अंग्रेजी शोषण की भाषा है। कल्पना करिए यदि उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दी व देश की अन्य भाषाओं को उनके क्षेत्र हिसाब से चलन में आ जाए तो अंग्रेजी का एकाधिकार टूटने में पलभर भी नहीं लगेगा। मंहगे वकीलों की फीस जमीन पर आ जाएगी और न्याय भी सहज और सस्ता हो जाएगा।
संविधान के अनुच्छेद 348 (1) में उच्च व सर्वोच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेजी निर्धारित की गई है। इस अनुच्छेद में (2) का पुछल्ला जोड़ते हुए कहा गया है कि यदि राज्यपाल चाहें तो वे राष्ट्रपति की अनुमति से न्यायालयों की भाषा स्थानीय बना सकते हैं। अब व्यवहारिक स्थिति समझिए..। राज्यपाल ऐसा कब चाहेंगे.., जब मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद और विधानसभा ऐसा चाहेगी। राष्ट्रपति कब चाहेंगे ..जब प्रधानमंत्री उनकी मंत्रिपरिषद और संसद चाहेगी। सो न्याय की भाषा बरतानवी (अंग्रेजी) तब तक बनी रहेगी जब तक कि इसके लिए संविधान में संशोधन नहीं होता। कायदे से न्याय पाने वाले को न्याय मिलते हुए समझ में भी आना चाहिए और उसे इसका बोध भी होना चाहिए। यह तभी होगा, जब आकांक्षी को उसकी जुबान में ही न्याय मिले, उसी में बहस हो।
हिन्दी और देशी भाषाओं में न्याय की लड़ाई लड़ने वाले श्यामरुद्र पाठक की सुधि लेने वाली न भाजपा है, न स्वदेशी आंदोलन वाले। सन 2011में यूपीए सरकार के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी। सालोंसाल धरने में बैठे रहे। एक दिन सरकार ने पकड़कर तिहाड़ भेज दिया तब से पता नहीं कि वे कहां हैं। श्यामरुद पाठक कोई मामूली आदमी नहीं हैं। उच्च शिक्षित व हिन्दी माध्यम से विज्ञान विषय में पीएचडी करने वाले, हिंदी माध्यम से आईएएस की परीक्षा पास करने वाले। हर मुद्दे पर गत्ते की तलवार भांजने वाले चैनलिया एंकरों को भी इधर देखने की फुरसत नहीं।
मोदी जी भले ही हिन्दी की बात करें पर वह ऊंची अदालतों और लाटसाहबी की भाषा हिन्दी को बना पाएंगें, मुश्किल है। इसकी साफ वजह है। पिछली सरकारों से लेकर अब की सरकार में भी बडे़ वकील ही प्रभावशाली मंत्री हैंं। ये जब कुछ नहीं रहते तब वकील होते हैंं। जब अंग्रेजी ही इनकी विशिष्टता है तो भला ये क्यों राय देंगे कि हिन्दी और देशी भाषाओं को न्याय की भाषा बनाई जाए।
सरकार के नीति निर्देशक प्रारूप यही अंग्रेजीदा लाटसाहब लोग बनाते हैंं तो ये अपनी ही पीढी के पांव में कुल्हाड़ी क्यों मारेंगे, सो यह मानकर चलिए कि ये सरकारों में आने जाने वाले लोग बातें तो हिन्दी की बहुत करेंगे, कसमें खाएंगे और संकल्प भी लेंगे पर हिन्दी की बरकत के लिए करेंगे कुछ भी नहीं।
हिन्दी को हिन्दी के मूर्धन्य भी नहीं पालपोस रहे हैं। उनकी रचनाओं, कृतियों को पढ़ता कौन है…जो पीएचडी कर रहे होते हैं वे, या वे जिन्होंने समालोचकों का हुक्का भरा व उसके प्रतिद्वंदी को गरियाया वो, फिर कमराबंद संगोष्ठियों में अपनी अपनी सुनाने की प्रत्याशा में बैठे साहित्य के कुछ लोभार्थी और लाभार्थी। यदि ये माने कि हिन्दी इनके माथे बची है या आगे बढ़ रही है तो मुगालते में हैं। हिन्दी में कोई बेहतरीन बिक्री वाली पुस्तक क्यों नहीं निकलती…? मैंने ही कमलेश्वर की..कितने पाकिस्तान..के बाद कोई पुस्तक नहीं खरीदी। प्रेमचंद, निराला, दिनकर और इनके समकलीन ही पुस्तक की दूकानों में अभी भी चल खप रहे हैं।
दरअसल, जो लोकरुचि का लेखक हैं, उसे यह महंत और उनके पंडे साहित्यकार मानते ही नहीं। बाहर गाडफादर और लोलिता जैसे उपन्यासों को साहित्यिक कृति का दर्जा है। यहां ऐसी कृतियों को लुगदी साहित्य करार कर पल भर में खारिज कर दिया जाता है। हिन्दी के कृतिकार अपने खोल में घुसे हैं। यही इनकी दुनिया है। हिन्दी को बाजार पालपोस रहा है। यह उत्पादक और उपभोक्ता की भाषा है। बाजार के आकार के साथ साथ हिन्दी का भी आकार बढ़ रहा है। फिल्में हिन्दी को सात समंदर पार ले जा रही हैं। जिस काम की अपेक्षा साहित्यकारों से है वह काम अपढ फिल्मकार कर रहे हैं। हिन्दी की गति उसकी नियति से तय हो रही है। जैसे फैले फैलने दीजिए। अपन तो यही मानते हैं कि जैसे घूरे के दिन भी कभी न कभी फिरते हैं, वैसे ही हिन्दी के भी फिरेंगे।
(लेखक कई जाने-माने दैनिक समाचार पत्रों में संपादक रहे हैं और पत्रकारिता में अध्यापन भी कर रहे हैं)