दिल्ली । उत्तर प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में अब बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है। जहा एक ओर समाजवादी पार्टी (सपा) अब सीधे मायावती के गढ़ में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है। पहले सिर्फ यादव और मुस्लिम वोट बैंक पर भरोसा करने वाली सपा अब दलितों को लुभाने और उनके अपने पाले में लाने की मुहिम चला रही है।
अवधेश, रामजीलाल और अब इंद्रजीत सरोज – तीन चेहरे एक मिशन
सपा ने सबसे पहले वरिष्ठ नेता अवधेश प्रसाद को आगे कर गैर-जाटव दलितों को साधने की कोशिश की। फिर राणा सांगा विवाद के दौरान रामजीलाल सुमन को खुलकर समर्थन करके एक ओर क्षत्रिय समाज का पुरजोर विरोध किया ,तो वही दूसरी ओर जाटव समाज को संदेश दिया कि सपा उनके साथ खड़ी है। अब इंद्रजीत सरोज के बयानों और बढ़ती सक्रियता से साफ है कि सपा दलितों में और गहराई से पैठ बनाने की तैयारी में है।
2021 से दिखने लगे थे संकेत– सपा ने 2021 में ‘समाजवादी बाबा साहेब आंबेडकर वाहिनी’ बनाकर दलित समाज को जोड़ने की कोशिश शुरू कर दी थी। बाद में इसे पार्टी के अहम मोर्चे का दर्जा भी दे दिया गया। 2022 के विधानसभा चुनाव और फिर 2024 के लोकसभा चुनाव में इसके असर भी दिखे।
2024 में दलितों ने दिखाया भरोसा–पिछले लोकसभा चुनाव में सपा ने 37 सीटें जीतीं जिनमें 8 सांसद दलित वर्ग से थे। वहीं कभी दलितों की सबसे बड़ी नेता मानी जाने वाली मायावती की बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई। बसपा का वोट शेयर भी गिरकर सिर्फ 9% रह गया।
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क्या मायावती के किले में लग गई दरार?—सवाल अब यही है कि क्या अखिलेश यादव की ये चालें मायावती की राजनीति की बुनियाद को कमजोर कर पाएंगी? या फिर दलित समाज एक बार फिर से बसपा की ओर लौटेगा? फिलहाल इतना तो तय है कि यूपी की सियासत अब तेजी से बदल रही है और दलित वोट की लड़ाई अब सपा और बसपा के बीच और तीखी हो चली है।