अलविदा…. मिखाइल गोर्वाचेव: भारत का पक्का दोस्त, जिसने कहा था – कांटा भारत के पांव में लगे तो दर्द सोवियत संघ को होता है

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डा. पवन सक्सेना

मुख्य संपादक

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मिखाइल गोर्वाचेव ( Mikhail Gorbachev) नहीं रहे। बीती सदी के आखिरी दशकों के बीच सोवियत संघ के सुप्रीम लीडर, भारत के पक्के सच्चे दोस्त और दुनिया में शांति के नोबल पुरस्कार से सम्मानित एक अद्भुत अंतर्राष्ट्रीय नेता। किसी के लिए नायक तो किसी के लिए सोवियत विभाजन के खलनायक। 91 साल की उम्र में दुनिया छोड़ गए। साथ ही कुछ सवाल भी जो लोकतंत्र यानी डेमोक्रेसी और एकतंत्र यानी आटोक्रेसी में अपना अपना भरोसा रखने वाले दोनो ही वर्गो को समझने चाहिए…., समझने ही होंगे।

मुझे याद है, हम छोटे रहे होंगे, यही कोई दस – बारह बरस के। पिता जी के साथ हर दूसरे सन-डे नाई की दुकान पर जाना होता था। बाल कटवाने। खाली टाइम में वहां पड़ी किताबों को उलटा पलटा करते थे। इनमें कई फिल्मी किताबे होती थीं – जैसे मायापुरी, फिल्मी दुनिया आदि। इसी बीच बढ़िया चिकने कागज पर, खूबसूरत फोटो के साथ छपी एक पत्रिका होती थी – सोवियत संघ। शायद, उस वक्त बड़े पैमाने पर यह किताब फ्री, एम्बेसी की ओर से भेजी जाती होगी। ऐसा मुझे लगता है। इस किताब के कवर पर अक्सर एक मुस्कराते चेहरे की फोटो होती थी, जिनके सिर पर एक नक्शे जैसा निशान था, कुछ अलग सी पर्सनाल्टी, यही थे – मिखाइल गोर्वाचेव। खैर… उस वक्त सिर्फ इतना ही जान सका कि यह सोवियत संघ के राष्ट्रपति हैँ और हमारे यानी भारत के दोस्त।
1986 का नवंबर का महीना। हल्के जाड़े की शुरुआत, दिल्ली में भारत और सोवियत संघ की दोस्ती के रिश्ते काफी गर्मजोशी से भरे थे। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) और सोवियत प्रमुख के बीच की तस्वीरों से अखबार भर गए थे। दिल्ली डिक्लेरेशन हुआ, जो आपस के कई समझौतों के साथ साथ परमाणु हथियारों की रेस को दुनिया में घटाने की सैद्धान्तिक सहमति पर भी था। महात्मा बुद्ध और महात्मा गांधी का भारत, अहिंसा के सिद्धान्त को दुनिया में फैलाने वाला भारत, सोवियत नीतियों की आत्मा में साफ – साफ झलक रहा था। मिखाइल गोर्वाचोव की एक चर्चित लाइन ने भारतीयों का दिल जीत लिया था – भारत के पांव में जब भी कांटा लगता है, दर्द सोवियत संघ को होता है। उस वक्त का अमेरिका काफी पाकिस्तान परस्त था। आज भी भारत और रूस की मजबूत दोस्ती हमारे पुराने और वर्तमान राष्ट्रध्यक्षों के अभी तक के रिश्तों के निवेश पर मजबूती से टिकी है। रूस – युक्रेन युद्ध में भारत का रुख इसी का नतीजा है।
खैर…., दुनिया से कोल्ड वार यानी शीत युद्ध खत्म करने वाले मिखाइल गोर्वाचेव को 1990 में शांति का नोबल पुरस्कार मिला। उन्होंने पुराने सोवियत संघ की छवि को बदला। अफगानिस्तान, जर्मनी, हंगरी समेत दुनिया के कई देशों को आजादी दी। वह उपनिवेशवाद के विरोधी व परमाणु निरस्त्रीकरण के बड़े हिमायती थे। सोवियत संघ को उन्होंने अपनी दो मशहूर नीतियां दीं – पेरस्त्रोइका (पुनर्गठन) व ग्लासनोस्ट (खुलापन) (Perestroika and glasnost) , रूसी समाज बदलने लगा था। सोवियत समाज के रिश्तों और बाजार में खुलापन आ रहा था। एक दौर में जब रूसी खुफिया ऐजेंसी केजीबी आम रूसी जीवन में भी पूरा दखल रखती थी, उसका यह दखल और प्रभाव कुछ कम हो चला था। कह सकते हैं – यह कदम कुछ -.कुछ मजबूत लोकतांत्रिक रास्ते पर चलने जैसे थे। मिखाइल गोर्वाचेव के विरोधियों का लगता था कि वह पश्चिम के रास्ते पर चल निकले हैं। 15 राज्य रूस से अलग होकर आजाद राष्ट्र बनने को बेताब थे और आखिरकार 25 दिसंबर 1991, वह दिन आ ही गया जब दुनिया का सबसे बड़ा और विशाल देश सोवियत संघ बंट गया। सोवियत संघ की जमीन के सबसे बड़े नायक मिखाइल गोर्वाचेव खलनायक बन गए। मौजूदा राष्ट्रपति ब्लादिमेर पुतिन (Vladimir Putin), जो उस वक्त केजीबी के जासूस हुआ करते थे, उन समेत कई रूसियों का मानना था कि मिखाइल गोर्वाचेव की गलत नीतियों से सोवियत संघ का विभाजन हुआ। आज का रूस उसी ग्रेटर रूस की लड़ाई को लड़ रहा है। छह महीने से चल रहे युक्रेन युद्ध के कई कारणों में से दबा छिपा सा ही सही पर एक कारण यह भी है।
मिखाइल गोर्वाचेव ने एक इंटरव्यू में कहा था – 1991 में मेरा इस्तीफा ही मेरी जीत थी, क्योंकि सोवियत समाज उस वक्त बुरी तरह से बंट चुका था। हथियारों की होड़ मच गई थी, कई ताकतों के पास परमाणु हथियार भी थे। अगर सोवियत संघ का विभाजन और उनका इस्तीफा नहीं होता तब लाखों जाने जाती और वह इतनी बड़ी बर्बादी को वह नहीं देख सकते थे। उन्होंने स्थाई सत्ता की जगह सुधारों को चुना था। एक बार फिर, 1996 में मिखाइल गोर्वाचेव ने चुनाव लड़ा पर एक प्रतिशत के आसपास ही रूसी जनता के वोट उन्हें मिल सके, वह राजनीतिक रूप से पूरी तरह से नकार दिये गए । कभी माडलिंग करते, कभी कुछ और छोटे मोटे काम करते उनकी तस्वीरें जरूर कभी – कभी दुनिया को दिख जाती थीं। मिखाइल गोर्वाचेव, शायद एक ऐसी दुनिया बनाना चाहते थे, जहां शांति हो, अमन हो, आर्थिक विकास हो और खुलापन और आजादी हो। 1931 में एक गरीब परिवार में जन्में, रूसी पिता और युक्रेनियन मां की संतान के रूप में मिखाइल गोर्वाचोव ने पिछली सदी के आखिरी दशकों तक पूरी दुनिया पर असर डाला…, आज वह दुनिया को अलविदा कह गए हैं, पर 21 वीं सदी की दुनिया भी उनके विचारों के असर से अछूती नहीं रह सकती। सत्ता पाना, उसमें बना रहना, कठिन राजनीति और क्रूर कूटनीति है, मगर इंसानियत के सवालों पर उसे छोड़ देना, बहुत बड़ी बात। मास्को से दिल्ली की दूरी करीब साढ़े चार हजार किलोमीटर है, मिखाइल गोर्वाचेव की आवाजें हिंदुस्तानी शहरों तक भी पहुंचती थीं। भारत के एक पक्के सच्चे दोस्त का जाना दुखद है, इस मौके पर उनको याद करना और श्रद्धांजलि देना तो बनता ही है। इस दिवंगत अंतरराष्ट्रीय नेता को मेरी श्रद्धांजलि।
(लेखक जाने माने पत्रकार, मुख्य संपादक (leaderpost.in), उद्यमी एवं राजनेता हैं, पत्रकारिता में पीएचडी हैं तथा करीब दो दशक से अधिक दैनिक अमर उजाला, दैनिक जागरण, नव भारत टाइम्स आदि समाचार पत्रों में विभिन्न भूमिकाओं में कार्य कर चुके हैं )

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